Quantcast
Channel: ARVIND SISODIA
Viewing all articles
Browse latest Browse all 2978

हेट स्पीच पर सरकारी तंत्र दोहरा रवैया क्यों अपनाता है ?

$
0
0

Government machinery dual attitude on hate speech
हेट स्पीच पर सरकारी तंत्र दोहरा रवैया

*_🚩हेट स्पीच पर सरकारी तंत्र दोहरा रवैया क्यों अपनाता है?_*
- लेखक डॉ. शंकर शरण

🚩देश के पांच राज्यों में फिलहाल विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां तेज हैं। चुनावी तपिश में नेताओं की जुबान खूब फिसल रही है। अक्सर उनके वक्तव्य मर्यादा की रेखा लांघकर 'हेट स्पीच'यानी भड़काऊ या नफरती भाषण की श्रेणी में आ जाते हैं, जिससे सामाजिक सौहार्द बिगड़ता है। हेट स्पीच सियासी गलियारों तक सीमित नहीं है। कई अन्य मंचों पर भी ऐसे भाषण खूब दिए जा रहे हैं। 

🚩बीते दिनों हरिद्वार में आयोजित धर्म संसद में शामिल हुए कुछ लोगों के बोल सुर्खियां बने थे। उनपर कानूनी कार्रवाई की जा रही है लेकिन जब किसी दूसरे समुदाय के नेताओं द्वारा जहरीले बयान दिए जाते हैं तो हमारा सरकारी तंत्र चुप्पी साध लेता है। इसके विपरीत उन्हीं समुदायों को चोट पहुंचाने वाली बातों से निपटने के लिए अलग से कानून बनाए गए हैं। जबकि सनातन परंपराओं से जुड़ी धाराओं को लेकर प्रलाप बहुत आम है। जैसे पिछले कुछ समय से ब्राह्मणों के खिलाफ तरह-तरह की बातें करना राजनीतिक दलों का प्रिय शगल बन गया है, परंतु इसका विरोध करना तो दूर किसी दल ने इसका संज्ञान लेना भी मुनासिब नहीं समझा। ऐसे में मूलभूत प्रश्न यही है कि क्या ऐसे दोहरे रवैये से कभी सामाजिक सौहार्द बन सकता है?

🚩इसी संदर्भ में भारतीय दंड संहिता 153-ए तथा 295-ए के उपयोग, उपेक्षा तथा दुरुपयोग का उदाहरण भी विचारणीय है। पहली धारा धर्म, जाति और भाषा आदि आधारों पर विभिन्न समुदायों के बीच द्वेष, शत्रुता और दुर्भाव फैलाने को दंडनीय बताती है। दूसरी धारा किसी समुदाय की धार्मिक भावना को जानबूझकर ठेस पहुंचाने या उसे अपमानित करने को दंडनीय कहती है। विचित्र बात यह है कि पिछले कई दशकों से एक समुदाय विशेष के नेता खुलकर दूसरे समुदाय के देवी-देवताओं, प्रतीकों और ग्रथों आदि का अपमान करते रहे हैं। इंटरनेट मीडिया पर इसके असंख्य उदाहरण हैं। एक समुदाय विशेष के नेता खुलेआम धमकी देते हैं कि पंद्रह मिनट के लिए पुलिस हटा ली जाए तो वे क्या से क्या कर सकते हैं। दुख की बात यही है कि ऐसे बयानों पर शासन-प्रशासन या न्यायपालिका कभी ध्यान नहीं देते और देते भी हैं तो उन्हें अनसुना कर उपेक्षा कर देते हैं। इससे हेट स्पीच को परोक्ष प्रोत्साहन मिलता है। तभी ऐसे बयान बार-बार दोहराए जाते हैं। इससे एक समुदाय में दबंगई का भाव और दूसरे में हीनता की ग्रंथि पनपती है, जिससे सामाजिक तानाबाना बिगड़ता है।

दूसरी ओर, कुछ मतावलंबियों की मजहबी किताबों में ही दूसरे मत को मानने वालों के विरुद्ध तरह-तरह की घृणित बातें और आह्वान हैं। ऐसे संप्रदाय अपनी किताब को दैवीय और पवित्र मानते हैं और उनके खिलाफ उन्हें कुछ भी स्वीकार्य नहीं। तब अपने प्रति वैसी बातों पर दूसरे समुदायों को आपत्ति का अधिकार है या नहीं? यह विडंबना तब और बढ़ जाती है जब शासन-प्रशासन संबंधित समुदाय को उन किताबों के पठन-पाठन समेत विशेष शैक्षिक-तकनीकी स्वतंत्रता तथा सहायता देते हैं। इस तरह कुछ समुदायों के विरुद्ध घृणा फैलाने को किसी समुदाय की 'शिक्षा'का अंग मानकर परोक्ष रूप से राजकीय सहायता तक मिलती है। क्या इस पर पुनर्विचार नहीं होना चाहिए?

🚩ऐसी प्रामाणिक बातों को तथ्यों के साथ न्यायालय में प्रस्तुत करना भी उलटा ही पड़ता है। कई बार न्यायालय याची पर ही जुर्माना लगा देता है। इससे यही संदेश जाता है कि न्यायालय ऐसे मामलों की सुनवाई के इच्छुक नहीं हैं और इसपर दबाव बनाने वालों को दंडित करने से भी नहीं हिचकेंगे। ऐसा दोहरा रवैया ही तीखी प्रतिक्रियाओं को जन्म देता है। हरिद्वार में जो बयान सामने आए वे उसी प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति हैं। यदि शासन-प्रशासन और न्यायपालिका किसी समुदाय विशेष के हितों के प्रति उदासीनता दिखाएंगे तो उससे पीड़ित-प्रभावित लोगों की तल्ख प्रतिक्रिया सामने आनी स्वाभाविक है।

🚩यह दोहरा रवैया हमारे शासकीय और बौद्धिक वर्ग में घोर मानसिक गिरावट का भी संकेत है। वे वास्तविकता का आकलन करने में असमर्थ-अयोग्य बने हुए हैं। कई बार बड़ी घटनाओं में दिखा है कि विभिन्न समुदायों के हितों, भावनाओं, धर्म, संस्कृति के प्रति विषम व्यवहार पर हेठी झेलने वाले समूह में असंतोष बढ़ता जाता है। उससे उपजे तनाव से हिंसा तक भड़क जाती है। चुनावी रण में भी उसकी छाप पड़ती है। फिर भी हमारे नेता, शासक, बुद्धिजीवी तथा न्यायपाल अपना दोहरा रवैया जारी रखते हैं कानूनी रूप से भी और कानून की उपेक्षा करके भी। उन्हें ध्यान देना चाहिए कि अप्रिय बातों, फैसलों और भाषणों को लोक स्मृति से हटा देने की संभावना अब बहुत घट गई है। नए मीडिया ने सेंसरशिप को निष्फल कर दिया है। आज उचित-अनुचित बातें हर जगह बेरोकटोक पहुंचाई जा सकती हैं। अत: अन्यायपूर्ण, अपमानजनक कथनी-करनी पर शासन और न्यायपालों को विश्वसनीय समानता बनानी ही होगी। ऐसा न करने की कीमत समाज में निर्दोष लोगों को चुकानी पड़ती है।

हर वर्ग, समूह, और संप्रदाय के निर्दोष लोगों को अपने समुदाय के आक्रामक नेताओं की बयानबाजी के चलते दूसरों के संदेह का शिकार होना पड़ता है। इसे केवल शासन की समदर्शिता ही रोक सकती है।

🚩इसलिए यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हो जाता है कि विभिन्न हस्तियों और नेताओं के विद्वेष बढ़ाने वाले बयानों पर त्वरित कार्रवाई की जाए। उससे समाज के सभी समुदायों में भरोसा पैदा होगा। जब अनुचित बोलने वाले समान रूप से दंडित होंगे, तब विभिन्न समुदायों में आपसी संदेह न रहेगा। इसके अभाव में ही मुंह देखकर मामले उठाने या दबाने के कारण सामुदायिक अनबन बढ़ती है। इसका लाभ नेता लोग उठाते हैं, किंतु समाज को क्षति उठानी पड़ती है।

🚩बेहतर हो कि हमारे शीर्ष न्यायाधीश, समाज के सभी वर्गों के विवेकशील प्रतिनिधियों को साथ लेकर समरूप आचार संहिता और दंड नीति तैयार करें जिनसे शिक्षा, कानून, राजनीतिक और धार्मिक व्यवहारों पर सभी वर्गों को समान अधिकार एवं सुरक्षा प्राप्त हो। किसी भी दलील से किसी समुदाय को विशेष अधिकार या किसी को विशेष वंचना न मिले। आज की दुनिया में विशेषाधिकारों का दावा नहीं चल सकता। कोई भी अपने धर्म, जाति और संप्रदाय के लिए ऐसे अधिकार नहीं ले सकता, जो वह दूसरों को न देना चाहे।

- लेखक डॉ. शंकर शरण

🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻

Viewing all articles
Browse latest Browse all 2978

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>