विलुप्त वृंदावन को पुर्नजीवन प्रदान करने वाले महानकृष्ण भक्त “चैतन्य महाप्रभु” Chaitanya Mahaprabhu
चैतन्य महाप्रभु भक्तिकाल के प्रमुख आध्यात्मि कवियों में से एक हैं। उनकी तीन महत्वपूर्ण शिक्षायें / अठारह शब्दीय महामन्त्र नाम संकीर्तन हमारा मार्गदर्शन युगों युगों तक करती रहेंगी कि:-
1- ईश्वर का अंश सभी प्राणियों में समानरूप से है। वे समदर्शी है,सभी को समान भाव से देखते हैं।
2- ईश्वर के प्रति हम जैसी आसक्ती, समर्पण और भाव रखते हैं वैसी उनकी हम पर कृपा होती है।
3- ईश्वर में ही सम्पूर्ण समाया हुआ है, उनसे बाहर एक परमाणु भी नहीं है।
4- महामन्त्र नाम संकीर्तन “ हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे। हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे ” नामक अठारह शब्दीय कीर्तन महामन्त्र निमाई की ही देन है।
वृंदावन में श्री चैतन्य महाप्रभु के आगमन की 500 वीं जंयती पर स्मारक और सिक्के
'वृन्दावन में श्री चैतन्य महाप्रभु के आगमन की 500वीं जयंती के उपलक्ष्य में सालभर चलने वाले कार्यक्रम के मद्देनजर 500 रूपए के स्मारक गैर-प्रचलन सिक्के और 10 रुपये के प्रचलन सिक्के जारी किए।
कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति योग के वैष्णव संप्रदाय की स्थापना की थी। श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान श्री कृष्ण की उपासना का प्रचार किया और “हरे कृष्ण मंत्र” के जाप को लोकप्रिय बनाया। वर्ष 1515 में श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान श्री कृष्ण से जुड़े पवित्र स्थानों की खोज में वृंदावन में पधारे थे। माना जाता है कि उन्होंने अपनी आध्यात्मिक शक्ति से भगवान श्री कृष्ण से जुड़े सभी स्थानों को खोज निकाला और धार्मिक परंपरा की प्राचीन पवित्रता को दोबारा स्थापित किया।
इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी। भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया । उन्होनें एकता, समता और सद्भावना को स्थापित करनें पर बल दिया। उन्होनें जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना ऊपर उठ कर समस्त जीवों में परमात्मा के अंश का संदेश दिया । जिस तरह मूल द्वारका विलुप्त हो गई थी उसी तरह मूल वृंदावन की स्थिती भी विलुप्त जैसी ही थी। उसे फिर से बसाना एवं उसमें वही वृंदावन भाव को स्थापित करनें का महान कार्य महाप्रभु ने किया और लगातार वहां निवास कर उसे महानर्तीर्थ का वैभव प्रदान करवाया अर्थात वृदांवन को पुर्नजीवन प्रदान किया । संभवतः ईश्वर ने उन्हे इसी निमित्त पृथ्वी पर अवतरित किया था। वृदांवन की प्रतिष्ठापूर्ण स्थापना के कुछ वर्षों बाद मात्र 48 वर्ष की आयु में,उनका देवलोक गमन भी हो गया था तब ने श्रीकृष्ण-बलदाऊजी एवं सुभ्रदा जी के पावनधाम के प्रवास पर थे।
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महान कृष्ण भक्त चौतन्य महाप्रभु
चौतन्य महाप्रभु वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं।
जन्म की तारीख 18 फ़रवरी 1486 स्थान नवद्वीप पश्चिम बंगाल, भारत
मृत्यु 14 जून 1534, जग्गनाथपुरी धाम , उडीसा, भारत
पति- लक्ष्मीप्रिया एवं विष्णुप्रिया
अन्य नाम -विश्वम्भर मिश्र,निमाई पण्डित, गौराङ्ग महाप्रभु, गौरहरि, गौरसुंदर, श्रीकृष्ण चौतन्य भारती आदि
किताबें - शिक्षाष्टक, ज़्यादा
माता-पिता - शचि देवी, जगन्नाथ मिश्र
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चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन 1486 की फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक उस गांव में हुआ, जिसे अब मायापुर कहा जाता है। बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें निमाई कहकर पुकारते थे। गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर आदि भी कहते थे। चौतन्य महाप्रभु के द्वारा गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की आधारशिला रखी गई। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामन्त्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज भी पश्चिमी जगत तक में है।
इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शचि देवी था। निमाई बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था। बहुत कम उम्र में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गए थे। इन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया। निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद् चिंतन में लीन रहकर राम व कृष्ण का स्तुति गान करने लगे थे।
15-16 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह लक्ष्मीप्रिया के साथ हुआ। सन 1505 में सर्प दंश से पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ। जब ये किशोरावस्था में थे, तभी इनके पिता का निधन हो गया। सन 1509 में जब ये अपने पिता का श्राद्ध करने गया गए, तब वहां इनकी मुलाक़ात ईश्वरपुरी नामक संत से हुई। उन्होंने निमाई से कृष्ण-कृष्ण रटने को कहा। तभी से इनका सारा जीवन बदल गया और ये हर समय भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इनकी अनन्य निष्ठा व विश्वास के कारण इनके असंख्य अनुयायी हो गए। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया। “ हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे। हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे ” नामक अठारह शब्दीय कीर्तन महामन्त्र निमाई की ही देन है।
इनका पूरा नाम विश्वम्भर विश्र और कहीं श्रीकृष्ण चैतन्य चन्द्र मिलता है। चैतन्य ने चौबीस वर्ष की उम्र में वैवाहिक जीवन त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया था। वे कर्मकांड के विरोधी और श्रीकृष्ण के प्रति आस्था के समर्थक थे। चैतन्य मत का एक नाम “ गोडीय वैष्णव मत ” भी है। चैतन्य ने अपने जीवन का शेष भाग प्रेम और भक्ति का प्रचार करने में लगाया। उनके पंथ का द्वार सभी के लिए खुला था। हिंदू और मुसलमान सभी ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। उनके अनुयायी चैतन्यदेव को विष्णु का अवतार मानते हैं। अपने जीवन के अठारह वर्ष उन्होंने उड़ीसा में बिताये। छह वर्ष तक वे भारत के अन्य क्षैत्रों सहित वृन्दावन आदि स्थानों में विचरण करते रहे। 48 वर्ष की अल्पायु में उनका देहांत हो गया। मृदंग की ताल पर कीर्तन करने वाले चैतन्य के अनुयायियों की संख्या आज भी पूरे भारत में पर्याप्त है।