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ईश्वर तो है there is god

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 ईश्वर तो है 

ईश्वर कौन है ?
ईश्वर कैसा है ?
ईश्वर किसे कहते हैं ?
ईश्वर स्त्री है या पुरुष है ?
ईश्वर कहां रहता है ?
ईश्वर किस तरह रहता है ?
उसका किस तरह का शरीर है ?
किस तरह का रहन सहन है ?
उसकी कैसी कार्यप्रणाली है ?
उसके सहायक कौन कौन हैं ? 
वह है भी या नहीं ?
पृथ्वी का ईश्वर चन्द्रमा का आकाशगंगा का ईश्वर अलग अलग हैं | 
इस तरह के बहुतसारे प्रश्नों के उत्तर करोड़ों वर्षों से खोजे जाते रहे हैं । जिसकी जैसी समझ थी वह वैसा अनुभव बयान करता रहा है । 
कल्पनाओं के सागर और सत्य जानने की कोशिश करोड़ों वर्षों से हो रही है ।


आदी आदी अनेकानेक प्रश्न ईश्वर को लेकर के पूछे जाते हैं किए जाते हैं और उनको यथा उचित उत्तर भी समय-समय पर दिए जाते रहे यह प्रश्न ठीक वैसा ही है कि जिसका सामान्य कोई उत्तर नहीं है

अरविंद 
ईश्वर की खोज का एक अनुसंधान और यह नहीं कह सकता कि हमने पूरी तरह से ईश्वर को खोज लिया और वह व्यक्ति वहां बैठा हुआ है और उस क्षेत्र के तमाम अनुसंधान समाप्त हो गए ईश्वर के संदर्भ में जो थोड़ा बहुत निकटतम था का ज्ञान प्राप्त होता है उसे लिपिबद्ध करके समाज के बीच में संसृति सन्यासी अलग अलग तरीके से और इसी क्रम में यह नहीं कहा जा सकता कि हम ईश्वर के नाम पर सूट पहला हम खेला यह सत्य स्थापित करते हैं क्योंकि यह इस तरह की बात करना ही सबसे बड़ा पार्क ईश्वर के प्रति अपराध होगा और किसलिए हमको धर्म मार्ग पर चलने का मतलब ईश्वर की सही खोज को सही अनशन दानों को जानना समझना और उस पर आगे बढ़ने का कारण होता है

किंतु यह सत्य है ईश्वर है ईश्वर कौन है इस विषय को लेकर भी अनेकों प्रकार की परिभाषाएं हैं लेकिन सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि जिसने सृष्टि को इस प्रकृति को पदार्थ को प्रकाश को समाज के अंदर और प्रकृति और सृष्टि के अंदर होने वाली लाखों लाखों प्रकार की क्रियाओं प्रतिक्रियाओं को बनाया है निर्माण किया है वह शक्ति वह सत्ता ईश्वर है

जैसे कि हम एक मोटर मार्केट में जाते हैं और वहां देखते हैं की कार भी बिकने को तैयार है ट्रैक्टर बिकने को तैयार है मोटरसाइकिल में बिकने को तैयार है स्कूटी बेचने को तैयार है अनेक अनेक प्रकार के मोटर व्हीकल वहां दुकानों पर शोरूम पर रखे हुए यह कभी नहीं कहा जा सकता कि वह अपने आप बन गए | यह मानना ही पड़ता है कि उनका निर्माता उनको बनाने वाला कोई ना कोई अन्य व्यक्ति है वह स्वयं अपने आप नहीं बने हैं यही नियम मनुष्य पर एवं प्रकृति में जितनी भी रचनाएं हैं सामान्यतः हिंदू संस्कृति मानती है कि 8400000 प्रकार के शरीर  है इन सभी शरीरों का निर्माता कोई न कोई है और जो है उसी को हम ईश्वर मानते हैं | इसी प्रकार से जब हम देखते हैं कि हमारी पृथ्वी है हमारी पृथ्वी के परिवार में एक चंद्रमा है हमारी पृथ्वी और चंद्रमा इस सौरमंडल अर्थात सूर्य के परिवार में है सूर्य इस आकाशगंगा के परिवार में है और यह आकाशगंगा अन्य चेहरा आकाशगंगा के साथ अपना एक परिवार बनाती है और इस तरह से कुल मिलाकर के करोड़ो आकाशगंगा है इसी प्रकार से हम पृथ्वी पर देखते हैं कि वह करीब-करीब सवा सौ तत्वों के बनी हुई है जिसमें हाइड्रोजन ऑक्सीजन नाइट्रोजन जैसी जैसे हैं तो वहीं लोहा तांबा जैसे धातु अभी है और फिर इन पदार्थों के आपसी संबंधों से इन तत्वों के आपसी संबंधों से योगिक बनते हैं और वह भी लाखों की संख्या में इसी तरह यौगिकों के आपस में मिलने से कई प्रकार के मिश्रण बनते हैं और यह मिश्रण ओं का यह संपूर्ण भंडार ही पृथ्वी है और ऐसे ही तमाम पिंड है जो की करोड़ों करोड़ों की संख्या में यही स्थिति हम देखें तो गुरुत्वाकर्षण की है प्रकाश की है चुंबकत्व की है और अनेकों प्रकार की जो वायु मारगी अर्थात करने हैं या अमृतिया हैं इस तरह की अनेकों प्रकार की शक्तियां हैं वह भी लाखों तरह के हैं उनकी भी है यही स्थिति कहीं ना कहीं हम जिन सात रंगों को देखते हैं उनकी हैं और हमारी आंखें ऐसी बहुत सारे रंगों को नहीं देख पाती वह भी बहुत सारे हैं उनका भी बहुत सारा स्थित है इसी प्रकार से ऐसी बहुत सारी चीजें हैं जिनको हम ना देख पाते हैं ना महसूस कर पाते हैं लेकिन उनका अस्तित्व होता है और उनका अस्तित्व होता है उनका भी निर्माता उनका भी नियामक कोई होता है और इसीलिए हमारे हिंदू धर्म में इसे नियंता कहा गया है नियंता या ने नियमों को बनाने वाला ईश्वर तो जो इस संपूर्ण सजन का निर्माता है निर्देशक हैं जिस के नियमों पर यह सब कुछ चलता है वह शक्ति ही ईश्वर कहलाती है जिस प्रकार हमारी आंखें तार में दौड़ते हुए करंट को नहीं देख सकते जिस तरह हमारी आंखें मोबाइल के तरंगों के द्वारा एक-दूसरे मोबाइल तक जाने वाली आवाजों को नहीं सुन सकते इसी तरह से अनेकों प्रकार के कारक तत्व जो हमें दृष्टिगोचर होते किंतु उनका अस्तित्व होता है इसलिए ईश्वर की भी स्थिति यही है ईश्वर ने जो आत्मा हमारे शरीर में दी है उसकी स्थिति भी यही है क्यों दृष्टिगोचर या वह हमारी आंख की पलक पकड़ में नहीं आती शरीर की स्थिति क्या है यह भी समझना है हम जिससे मोटर व्हीकल की बात कर रहे थे वहां जाकर के देखते हैं कि कोई एक मोटर हमन खरीदा स्कूटर ले लिया या मोटरसाइकिल ले लिया ट्रैक्टर ले लिया काली उसको चलाने के लिए ड्राइवर होता है
ड्राइवर उस महान को चलाता है तब वह नियंत्रित अनुशासित और अपने कार्य को सही तरीके से करते हुए चलते हुए यही स्थिति हमारे शरीर के साथ हमारी शरीर भी एक बनी हुई मशीन है लेकिन उसे जो चलाता है नियंत्रित रखता है अपने अनुशासन में रखता है वह आज चुनाव शब्द से जानी जाती है आत्मा तो करोड़ों करोड़ों वर्ष पूर्व निर्मित हो चुकी है और हम आत्मा की स्थिति वही मान सकते हैं जो एक एप्स की स्थिति होती है किसी कार्य विशेष को करने वाला ऐप होता है उसमें बहुत सारी चीजें का समूह भरा हुआ होता है बहुत सारी क्षमताएं भरी होती है और वह विशेष कार्य को ही कर पाता है तो जैसे मनुष्य है उसकी आत्मा का

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ईश्वर शब्द भारतीय दर्शन तथा अध्यात्म शास्त्रों में जगत् की सृष्टि, स्थिति और संहारकर्ता, जीवों को कर्मफलप्रदाता तथा दु:खमय जगत् से उनके उद्धारकर्ता के अर्थ में प्रयुक्त होता है। कभी-कभी वह गुरु भी माना गया है। न्यायवैशेषिकादि शास्त्रों का प्राय: यही अभिप्राय है- एको विभु: सर्वविद् एकबुद्धिसमाश्रय:। शाश्वत ईश्वराख्य:। प्रमाणमिष्टो जगतो विधाता स्वर्गापवर्गादि।

पातंजल योगशास्त्र में भी ईश्वर परमगुरु या विश्वगुरु के रूप में माना गया है। इस मत में जीवों के लिए तारकज्ञानप्रदाता ईश्वर ही है। परन्तु जगत् का सृष्टिकर्ता वह नहीं है। इस मत में सृष्टि आदि व्यापार प्रकृतिपुरुष के संयोग से स्वभावत: होते हैं। ईश्वर की उपाधि प्रकृष्ट सत्व है। यह षड्विंशतत्व (२६) रूप पुरुषविशेष के नाम से प्रसिद्ध है। अविद्या आदि पाँच कलेश, शुभाशुभ कर्म, जाति, आयु और भोग का विपाक तथा आशय का संस्कार ईश्वर का स्पर्श नहीं कर सकते। पंचविंशतत्व रूप पुरुषतत्व से वह विलक्षण है। वह सदा मुक्त और सदा ही ऐश्वर्यसंपन्न है। निरीश्वर सांख्यों के मत में नित्यसिद्धि ईश्वर स्वीकृत नहीं है, परंतु उस मत में नित्येश्वर को स्वीकार न होने पर भी कार्येश्वर की सत्ता मानी जाती है। पुरुष विवेकख्याति का लाभ किए बिना ही वैराग्य के प्रकर्ष से जब प्रकृतिलीन हो जाता है तब उसे कैवल्यलाभ नहीं होता और उसका पुन: उद्भव अभिनव सृष्टि में होता है। प्रलयावस्था के अनन्तर वह पुरुष उद्बुद्ध होकर सर्वप्रथम सृष्टि के ऊर्ध्व में बुद्धिस्थरूप में प्रकाश को प्राप्त होता है। वह सृष्टि का अधिकारी पुरुष है और अस्मिता समाधि में स्थित रहता है।

योगी, 'अस्मिता'नामक संप्रज्ञात समाधि में उसी के साथ तादात्म्य लाभ करते हैं। उसका ऐश्वरिक जीवन अधिकार संपद् रूपी जीवन्मुक्ति की ही एक विशेष अवस्था है। प्रारब्ध की समाप्ति पर उसकी कैवल्यमुक्ति हो जाती है। नैयायिक या वैशेषिकसंमत ईश्वर आत्मरूपी द्रव्य है और वह सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिसंपन्न परमात्मा के नाम से अभिहित है। उसकी इच्छादि शक्तियाँ भी अनन्त हैं। वह सृष्टि का निमित्त कारण है। परमाणु पुंज सृष्टि के उपादान कारण हैं।

मीमांसक ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। वे भेद को अपौरुषेय मानते हैं और जगत् की सामूहिक सृष्टि तथा प्रलय भी स्वीकार नहीं करते। उक्त मत में ईश्वर का स्थान न सृष्टिकर्ता के रूप में है और न ज्ञानदाता के रूप में।

वेदान्त में ईश्वर सगुण ब्रह्म का ही नामांतर है। ब्रह्म विशुद्ध चिदानंदस्वरूप निरुपाधि तथा निर्गुण है। मायोपहित दशा में ही चैतन्य को ईश्वर कहा जाता है। चैतन्य का अविद्या से योग होने पर वह जीव हो जाता हे। वेदांत में विभिन्न दृष्टिकोणों के अनुसार ब्रह्म, ईश्वर तथा जीवतत्व के विषय में अवच्छेदवाद, प्रतिबिंबवाद, आभासवाद आदि मत स्वीकार किए गए हैं। उनके अनुसार ईश्वरकल्पना में भी भेद हैं।

शैव मत में शिव को नित्यसिद्ध ईश्वर या महेश्वर कहा जाता है। वह स्वरूपत: चिदात्मक हैं और चित्-शक्ति-संपन्न हैं। उनमें सब शक्तियाँ निहित हैं। बिंदुरूप माया को उपादान रूप में ग्रहण कर शिव शुद्ध जगत् का निर्माण करते हैं। इसमें साक्षात्कर्तृत्व ईश्वर का ही है। तदुपरांत शिव माया के उपादान से अशुद्ध जगत् की रचना करते हैं, किंतु उसकी रचना साक्षात् उनके द्वारा नहीं होती, बल्कि अनन्त आदि विद्येश्वरों द्वारा परम्परा से होती है। ये विद्येश्वर सांख्य के कार्येश्वर के सदृश हैं, परमेश्वर के तुल्य नहीं। विज्ञानाकल नामक चिदणु माया तत्व का भेद कर उसके ऊपर विदेह तथा विकरण दशा में विद्यमान रहते हैं। ये सभी प्रकृति तथा माया से आत्मस्वरूप का भेदज्ञान प्राप्त कर कैवल्य अवस्था में विद्यमान रहते हैं। परंतु आणव मल या पशुत्व के निवृत्त न होने के कारण ये माया से मुक्त होकर भी शिवत्वलाभ नहीं कर पाते। परमेश्वर इस मल के परिपक्व होने पर उसके अनुसार श्रेष्ठ अधिकारियों पर अनुग्रह का संचार कर उन्हें बैंदव देह प्रदान कर ईश्वर पद पर स्थापित कर सृष्टि आदि पंचकृत्यों के संपादन का अधिकार भी प्रदान करता है। ऐसे ही अधिकारी ईश्वर होते हैं। इनमें जो प्रधान होते हैं वे ही व्यवहारजगत् में ईश्वर कहे जाते हैं। यह ईश्वर माया को क्षुब्ध कर मायिक उपादानों से ही अशुद्ध जगत् का निर्माण करता है और योग्य जीवों का अनुग्रहपूर्वक उद्धार करता है। ये ईश्वर अपना-अपना अधिकार समाप्त कर शिवत्वलाभ करते हैं। निरीश्वर सांख्य के समस्त कार्येश्वर और यहाँ के मायाधिष्ठाता ईश्वर प्राय: एक ही प्रकार के हैं। इस अंश में द्वैत तथा अद्वैत शैव मत में विशेष भेद नहीं है। भेद इतना ही है कि द्वैत मतों में परमेश्वर सृष्टि का निमित्त या कर्ता है, उसकी चित्शक्ति कारण है और बिंदु उपादान है। कार्येश्वर भी प्राय: उसी प्रकार का है- ईश्वर निमित्त रूप से कर्ता है, वामादि नौ शक्तियाँ उसकी कारण हैं तथा माया उपादान है। अद्वैत मत में निमित्त और उपादान दोनों अभिन्न हैं, जैसा अद्वैत वेदांत में है।

वैष्णव संप्रदाय के रामानुज मत में ईश्वर चित् तथा अचित् दो तत्वों से विशिष्ट है। ईश्वर अंगी है और चित् तथा अचित् उसके अंग हैं। दोनों ही नित्य हैं। ईश्वर का ज्ञान, ऐश्वर्य, मंगलमय गुणावली तथा श्रीविग्रह सभी नित्य हैं। ये सभी अप्राकृत सत्वमय हैं। किसी मत में वह चिदानंदमय है। गौडीय मत में ईश्वर सच्चिदानंदमय है और उसका विग्रह भी वैसा ही है। उसकी शक्तियाँ अंतरंग, बहिरंग और तटस्थ भेद से तीन प्रकार की है। अंतरंग शक्ति सत्, आनंद के अनुरूप संधिनीसंवित तथा ह्लादिनीरूपा है। तटस्थ शक्ति जीवरूपा है। बहिरंगाशक्ति मायारूपा है। उसका स्वरूप अद्वय ज्ञानतत्व है। परंतु ज्ञानी की दृष्टि से उसे अव्यक्तशक्ति ब्रह्म माना जाता है। योगी की दृष्टि से उसे परमात्मा कहा जाता है तथा भक्त की दृष्टि से भगवान् कहा जाता है, क्योंकि उसमें सब शक्तियों की पूर्ण अभिव्यक्ति रहती हे। इस मत में भी कार्यमात्र के प्रति ईश्वर निमित्त तथा उपादान दोनों ही माना जाता है। ईश्वर चित्, अचित्, शरीरी और विभु है। उसका स्वरूप, धर्मभूत ज्ञान तथा विग्रह सभी विभु हैं। देश, काल तथा वस्तु का परिच्छेद, उसमें नहीं है। वह सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिसंपन्न है। वात्सल्य, औदार्य, कारुण्य, सौंदर्य आदि गुण उसमें सदा वर्तमान हैं।

श्रीसंप्रदाय के अनुसार ईश्वर के पाँच रूप हैं- पर, व्यूह, विभव, अंतर्यामी और अर्चावतार। परमात्मा के द्वारा माया शक्ति में ईक्षण करने पर माया से जगत् की उत्पत्ति होती है। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्व वस्तुत: परमात्मा के ही चार रूप हैं। ये चार व्यूह श्रीसंप्रदाय के अनुसार ही गौड़ीय संप्रदाय में भी माने जाते हैं। वासुदेव, षाड्गुण्य विग्रह हैं परंतु संकर्षणादि में दो ही गुण हैं। इस मत के अनुसार भगवान् के पूर्ण रूप स्वयं श्रीकृष्ण हैं और उनके विलास नारायणरूपी भगवान् हैं, परंतु गुणों की न्यूनता रहती है। प्रकाश में स्वरूप तथा गुण दोनों ही समान रहते हैं।

गीता के अनुसार ईश्वर पुरुषोत्तम या उत्तम पुरुष कहा जाता है। वही परमात्मा है। क्षर और अक्षर पुरुषों से वह श्रेष्ठ है। उसके परमधाम में जिसकी गति होती है उसका फिर प्रत्यावर्तन नहीं होता। वह धाम स्वयंप्रकाश है। वहाँ चंद्र, सूर्य आदि का प्रकाश काम नहीं देता। सब भूतों के हृदय में वह परमेश्वर स्थित है और वही नियामक है।

प्राचीन काल से ही ईश्वरतत्व के विषय में विभिन्न ग्रंथों की रचना होती आई है। उनमें से विचारदृष्टि से श्रेष्ठ ग्रंथों में उदयनाचार्य की न्यायकुसुमांजलिहै। इस ग्रंथ में पाँच स्तवक या विभाग हैं। इसमें युक्तियों के साथ ईश्वर की सत्ता प्रमाणित की गई है। चार्वाक, मीमांसक, जैन तथा बौद्ध ये सभी संप्रदाय ईश्वरतत्व को नहीं मानते। न्यायकुसुमांजलि में नैयायिक दृष्टिकोण के अनुसार उक्त दर्शनों की विरोधी युक्तियों का खंडन किया गया हे। उदयन के बाद गंगेशोपाध्याय ने भी तत्वचिंतामणि में ईश्वरानुमान के विषय में आलोचना की है। इसके अनंतर हरिदास तर्कवागीश, महादेव पुणतांबेकर आदि ने ईश्वरवाद पर छोटी-छोटी पुस्तकें लिखी हैं।

रामानुज संप्रदाय में यामुन मुनि के सिद्धित्रय में ईश्वरसिद्धि एक प्रकरण है। लोकाचार्य के तत्वत्रय में तथा वेदांतदेशिक के तत्वमुक्ताकलाप, न्यायपरिशुद्धि आदि में भी ईश्वरसिद्धि विवेचित है। यह प्रसिद्धि है कि खंडनखंडकार श्रीहर्ष ने भी 'ईश्वरसिद्धि'नामक कोई ग्रंथ लिखा था। शैव संप्रदाय में नरेश्वरपरीक्षा प्रसिद्ध ग्रंथ है। प्रत्यभिज्ञा दर्शन में ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी का स्थान भी अति उच्च है। इसके मूल में उत्पलाचार्य की कारिकाएँ हैं और उनपर अभिनवगुप्तादि विशिष्ट विद्वानों की टिप्पणियाँ तथा व्याख्याएँ हैं। बौद्ध तथा जैन संप्रदायों ने अपने विभिन्न ग्रंथों से ईश्वरवाद के खंडन का प्रयत्न किया है। ये लोग ईश्वर को नहीं मानते थे किन्तु सर्वज्ञ को मानते थे। इसीलिए ईश्वरतत्व का खंडन कर सर्वज्ञ सिद्धि के लिए इन संप्रदायों द्वारा ग्रंथ लिखे गए। महापंडित रत्नकीर्ति का 'ईश्वर-साधन-दूषण'और उनके गुरु गौड़ीय ज्ञानश्री का 'ईश्वरवाददूषण'तथा 'वार्तिक शतश्लोकी'व्याख्यान प्रसिद्ध हैं।ज्ञानश्री विक्रमशील विहार के प्रसिद्ध द्वारपंडित थे। जैनों में अकलंक से लेकर अनेक आचार्यों ने इस विषय की आलोचना की है। सर्वज्ञसिद्धि के प्रसंग में बौद्ध विद्वान् रत्नकीर्ति का ग्रंथ महत्वपूर्ण है। मीमांसक कुमारिल ईश्वर तथा सर्वज्ञ दोनों का खंडन करते हैं। परवर्ती बौद्ध तथा जैन पंडितों ने सर्वज्ञखंडन के अंश में कुमारिल की युक्तियों का भी खंडन किया है। क्रिया शैली भी दिनचर्या की भाषा का अध्ययन करने वाले व्यक्ति को अपनी तरफ आकर्षित करती हैं जो एक नई दिशा प्रदान करने वाली युक्ति होती है, ईश्वर शब्द नई दिशा है जो अपने घर से बाहर आ कर पूरी प्रथ्वी पर एक ओर स्वयं की सोच पर और दूसरी विश्वसनीय कर्म करने की समता ,जो पुराने ग्रंथ है गीता कई तरह के हर क्षेत्र युक्ति संगत हम ईश्वर को पा सकते है।




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ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं | Om Purnamadah Purnamidam

ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते, 
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते। 

ॐ शांति: शांति: शांतिः  ईश उपनिषद

मन्त्र का अर्थ: वह जो (परब्रह्म) दिखाई नहीं देता है, वह अनंत और पूर्ण है। क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है। यह दृश्यमान जगत भी अनंत है। उस अनंत से विश्व बहिर्गत हुआ। यह अनंत विश्व उस अनंत से बहिर्गत होने पर भी अनंत ही रह गया।

इसे विस्तृत में जानने के लिए हम एक कहानी को माध्यम बनाते हे 

जंगल में एक योगी नित्यानंद रहते थे। योगी नित्यानंद काफी वृद्ध हो चले थे।वहां उस समय कुछ ही लोग रजते थे। जंगल होने के की वजह से वहा शेर,चित्ता और हाथी वहा आ जाते थे। वहा के योगाभ्यासी शिष्य प्रति दिन गुरूजी के लिए फल लाया करते थे। 

एक दिन वह शिष्य गुरूजी के फल तोड़ने के लिए वृक्ष पर चढ़ने लगे वहा गुरूजी नित्यानंद भी मौजूद थे | उस पेड़ पर एक बड़ा ही मधुमख्खी का छत्ता था और पेड़ हिलने से मधुमख्खी उड़ने लगी | शिष्य ने चिल्ला कर गुरूजी को पेड़ से दूर जाने का आग्रह करते हुए कहा की दूर चले जाइये नहीं तो मखियाँ काटेंगी। लेकिन दूर जाना तो दूर रहा वह योगी (नित्यानंद) मख्खी के पास जा कर कुछ बोलने लगे। शिष्य जब फल तोड़ कर पास आया, देखा की मख्खियाँ शांत हो कर दूर चली गयी थी।

शिष्य ने पूछा की गुरूजी आप मधुमख्खियों से कैसे बच गएँ। कौन सा मन्त्र आपने पढ़ा। मुझे भी बताईए। गुरूजी बोलें की पेड़ पर चढो और चढते रहो फिर मंत्रोंपदेश करूँगा। तब शिष्य पेढ पर चढने लगा। गुरूजी ने मंत्रोपदेश देना प्रारंभ करने लगे | की अंतरात्मा से में योग क्रिया कर रहा हूँ,

"हे मधुमखियौं मैं तुम्हारा कोई अहित नहीं करूँगा। तूम भी मेरा अपकार नहीं करना।” 

शिष्य ने कहा की यह तो मन्त्र नहीं है। गुरूजी ने कहा कि तुम निष्कपट यह बात मधुमख्खियों से धीरे से बोलो। हृदय की भाषा वे समझतीं है। केवल दिल खोल कर वार्तालाप करो। 

शिष्य ने ऐसा ही किया जैसे गुरूजी ने कहा आश्चर्य की बात हे की वो मधुमखियों ने उसकी भाषा को समझते हुए कोई अपकार नहीं किया और शांत हो गई 

उनके तथा हमारे अंदर एक ही आत्मा का निवास है, इसे जानना चाहिए। भलाई की बात सोचना ही महा मन्त्र है। नकारात्मक सोच हम न सोचें, तो सदैव हमारा मन्त्र फलीभूत होगा।

इसी प्रकार के मंत्रोच्चारण से उपासना करने का प्रयत्न हर एक व्यक्ति को करना चाहिए। 

पुराणों में हिंदू इतिहास की शुरुआत सृष्टि उत्पत्ति से ही मानी जाती है, ऐसा कहना की यहाँ से शुरुआत हुई यह ‍शायद उचित न होगा फिर भी वेद-पुराणों में मनु (प्रथम मानव) से और भगवान कृष्ण की पीढ़ी तक का इसमें उल्लेख मिलता है।

किसी भी धर्म के मूल तत्त्व उस धर्म को मानने वालों के विचार, मान्यताएँ, आचार तथा संसार एवं लोगों के प्रति उनके दृष्टिकोण को ढालते हैं। हिंदू धर्म की बुनियादी पाँच बातें तो है ही, (1.वंदना, 2.वेदपाठ, 3.व्रत, 4.तीर्थ, और 5.दान) लेकिन इसके अलावा निम्न ‍सिद्धांत को भी  जानना चाहिए |

1. ब्रह्म ही सत्य है: ईश्वर एक ही है और वही प्रार्थनीय तथा पूजनीय है। वही सृष्टि भी। शिव, राम, कृष्ण आदि सभी एक ही ईश्वर हे | हजारों देवी-देवता उसी एक के प्रति नमन हैं।  वेद और उपनिषद एक ही परमतत्व को मानते हैं।

2. वेद ही धर्म ग्रंथ है : पुराण, रामायण और महाभारत धर्मग्रंथ नहीं इतिहास ग्रंथ हैं। ऋषियों द्वारा पवित्र ग्रंथों, चार वेद एवं अन्य वैदिक साहित्य की दिव्यता एवं अचूकता पर जो श्रद्धा रखता है वही सनातन धर्म की सुदृढ़ नींव को बनाए रखता है।

3. सृष्टि उत्पत्ति व प्रलय : परमेश्वर सबसे बढ़कर है। हिन्दू धर्म की मान्यता है कि सृष्टि उत्पत्ति, पालन एवं प्रलय की अनंत प्रक्रिया पर चलती है। गीता में कहा गया है कि जब ब्रह्मा का दिन उदय होता है, तब सब कुछ अदृश्य से दृश्यमान हो जाता है और जैसे ही रात होने लगती है, सब कुछ वापस आकर अदृश्य में लीन हो जाता है। वह सृष्टि पंच कोष तथा आठ तत्वों से मिलकर बनी है। 

4. कर्मवान बनो :  कर्म से ही भाग्य का निर्माण होता है। कर्म एवं कार्य-कारण के सिद्धांत अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने भविष्य के लिए पूर्ण रूप से स्वयं ही उत्तरदायी है। प्रत्येक व्यक्ति अपने मन, वचन एवं कर्म की क्रिया से अपनी नियति स्वयं तय करता है। इसी से प्रारब्ध बनता है। कर्म का विवेचन वेद और गीता में दिया गया है।

5. पुनर्जन्म : सनातन हिन्दू धर्म पुनर्जन्म में विश्वास रखता है। जन्म एवं मृत्यु के निरंतर पुनरावर्तन की प्रक्रिया से गुजरती हुई आत्मा अपने पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करती है। आत्मा के मोक्ष प्राप्त करने से ही यह चक्र समाप्त होता है।

6. प्रकति की प्रार्थना : वेद प्राकृतिक तत्वों की प्रार्थना किए जाने के रहस्य को बताते हैं। ये नदी, पहाड़, समुद्र, बादल, अग्नि, जल, वायु, आकाश और हरे-भरे प्यारे वृक्ष हमारी कामनाओं की पूर्ति करने वाले हैं अत: इनके प्रति कृतज्ञता के भाव हमारे जीवन को समृद्ध कर हमें सद्गति प्रदान करते हैं। इनकी पूजा नहीं प्रार्थना की जाती है। यह ईश्वर और हमारे बीच सेतु का कार्य करते हैं। यही दुख मिटाकर सुख का सृजन करते हैं।

7.गुरु का महत्व : सनातन धर्म में सद्‍गुरु के समक्ष वेद शिक्षा-दिक्षा लेने का महत्व है। किसी भी सनातनी के लिए एक गुरु (आध्यात्मिक शिक्षक) का मार्ग दर्शन आवश्यक है। गुरु की शरण में गए बिना अध्यात्म व जीवन के मार्ग पर आगे बढ़ना असंभव है। लेकिन वेद यह भी कहते हैं कि अपना मार्ग स्वयं चुनों। जो हिम्मतवर है वही अकेले चलने की ताकत रखते हैं।

8.सर्वधर्म समभाव : 'आनो भद्रा कृत्वा यान्तु विश्वतः'- ऋग्वेद के इस मंत्र का अर्थ है कि किसी भी सदविचार को अपनी तरफ किसी भी दिशा से आने दें। ये विचार सनातन धर्म एवं धर्मनिष्ठ साधक के सच्चे व्यवहार को दर्शाते हैं। चाहे वे विचार किसी भी व्यक्ति, समाज, धर्म या सम्प्रदाय से हो। यही सर्वधर्म समभाव: है। हिंदू धर्म का प्रत्येक साधक या आमजन सभी धर्मों के सारे साधु एवं संतों को समान आदर देता है।

9.यम-नियम : यम नियम का पालन करना प्रत्येक सनातनी का कर्तव्य है। यम अर्थात (1)अहिंसा, (2)सत्य, (3)अस्तेय, (4) ब्रह्मचर्य और (5)अपरिग्रह। नियम अर्थात (1)शौच, (2)संतोष, (3)तप, (4)स्वाध्याय और (5)ईश्वर प्राणिधान।

10. मोक्ष का मार्ग : मोक्ष की धारणा और इसे प्राप्त करने का पूरा विज्ञान विकसित किया गया है। यह सनातन धर्म की महत्वपूर्ण देन में से एक है। मोक्ष में रुचि न भी हो तो भी मोक्ष ज्ञान प्राप्त करना अर्थात इस धारणा के बारे में जानना प्रमुख कर्तव्य है।

12 संध्यावंदन : संधि काल में ही संध्या वंदन की जाती है। वैसे संधि पाँच या आठ वक्त (समय) की मानी गई है, लेकिन सूर्य उदय और अस्त अर्थात दो वक्त की संधि महत्वपूर्ण है। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है।

13 श्राद्ध-तर्पण : पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। तर्पण करना ही पिंडदान करना है। श्राद्ध पक्ष का सनातन हिंदू धर्म में बहुत ही महत्व माना गया है।

14.दान का महत्व : दान से इंद्रिय भोगों के प्रति आसक्ति छूटती है। मन की ग्रथियाँ खुलती है जिससे मृत्युकाल में लाभ मिलता है। मृत्यु आए इससे पूर्व सारी गाँठे खोलना जरूरी है, ‍जो जीवन की आपाधापी के चलते बंध गई है। दान सबसे सरल और उत्तम उपाय है। वेद और पुराणों में दान के महत्व का वर्णन किया गया है।

15.संक्रांति : भारत के प्रत्येक समाज या प्रांत के अलग-अलग त्योहार, उत्सव, पर्व, परंपरा और रीतिरिवाज हो चले हैं। यह लंबे काल और वंश परम्परा का परिणाम ही है कि वेदों को छोड़कर हिंदू अब स्थानीय स्तर के त्योहार और विश्वासों को ज्यादा मानने लगा है। सभी में वह अपने मन से नियमों को चलाता है। कुछ समाजों ने माँस और मदिरा के सेवन हेतु उत्सवों का निर्माण कर लिया है। रात्रि के सभी कर्मकांड निषेध माने गए हैं।

उन त्योहार, पर्व या उत्सवों को मनाने का महत्व अधिक है जिनकी उत्पत्ति स्थानीय परम्परा, व्यक्ति विशेष या संस्कृति से न होकर जिनका उल्लेख वैदिक धर्मग्रंथों, धर्मसूत्रों और आचार संहिता में मिलता है। ऐसे कुछ पर्व हैं और इनके मनाने के अपने नियम भी हैं। इन पर्वों में सूर्य-चंद्र की संक्रांतियों और कुम्भ का अधिक महत्व है। सूर्य संक्रांति में मकर सक्रांति का महत्व ही अधिक माना गया है।

16.यज्ञ कर्म : वेदानुसार यज्ञ पाँच प्रकार के होते हैं-(1) ब्रह्मयज्ञ (2)देवयज्ञ (3)पितृयज्ञ (4)वैश्वदेव यज्ञ (5)अतिथि यज्ञ। उक्त पाँच यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। वेदज्ञ सार को पकड़ते हैं विस्तार को नहीं।

17.वेद पाठ : कहा जाता है कि वेदों को अध्ययन करना और उसकी बातों की किसी जिज्ञासु के समक्ष चर्चा करना पुण्य का कार्य है, लेकिन किसी बहसकर्ता या भ्रमित व्यक्ति के समक्ष वेद वचनों को कहना निषेध माना जाता है।

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