Quantcast
Channel: ARVIND SISODIA
Viewing all articles
Browse latest Browse all 2979

राजनीति राष्ट्र के लिए : पं0 दीनदयाल उपाध्याय

$
0
0

 

25 सितम्बर, जयन्ति पर विशेष

 राजनीति राष्ट्र के लिए : पं0 दीनदयाल उपाध्याय
        - अरविन्द सीसौदिया

 Pandit Deendayal Upadhyay - A New Ideology | पंडित दीनदयाल उपाध्याय - एक  नयी विचारधारा

                               
    स्वतंत्र भारत में कांग्रेस का राजनैतिक विकल्प स्थापित करने का सबसे ज्यादा श्रेय यदि किसी को मिलता है तो वह नाम भारतीय जनसंघ के अखिल भारतीय महामंत्री एवं अध्यक्ष रहे ,पं0 दीनदयाल उपाध्याय को जाता है। भारतीय जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी तक की 52 वर्षो की स्वर्ण जयंति यात्रा में उपाध्याय जी के विचार, मार्गदर्शन एवं कार्यपद्धति इस संगठन की सड़क बनकर लक्ष्य तक पहुँचाने का काम करती रही है। यही कारण है कि आज भी भारतीय जनता पार्टी का कोई भी कार्यक्रम उपाध्याय जी के चित्र पर माल्यार्पण के बिना प्रारम्भ नहीं होता है । दीनदयाल उपाध्याय अमर रहें के नारे गूंजते रहते है। कहीं दीनदयाल भवन है ,कहीं दीनदयाल पार्क है, कहीं दीनदयाल चौराहा है, उनके नाम पर अनेकों सरकारी एवं गैर सरकारी योजनाये चलती है ,संस्थाऐं और विचार मंच देश भर में आदर और आस्था के साथ चल रहे है। उन पर कई पुस्तके,लेख प्रतिवर्ष छपते रहते है ,शोध हुए है।अपने आपमें एक सम्पूर्ण दाशर्निक की छवी ने उन्हे अमर कर दिया।
    पं0 दीनदयाल उपाध्याय जब राजनीति में आये तब चौतरफा कांग्रेस का डंका बजता था। कांग्रेस अपने चरमोत्कर्ष पर थी ,वह सफलता के मद में जब राष्ट्रधर्म को भूल, स्वतंत्रता के पश्चात देश को दिशा देने के लक्ष्य से भटक गई थी। तब देश में राष्ट्रवादी राजनीति का दीपक जलाने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने कुछ प्रतिभावान स्वयंसेवको को राजनीती में भेजा ,जिनमें प.दीनदयाल उपाध्याय, अटलबिहारी वाजपेयी, भाईमहावीर,नानाजी देशमुख,कुशाभाऊ ठाकरे,सुंदरसिंह भंडारी, जगन्नाथराव जोशी थे और यह कार्य उन्होंने सफलता से कर दिखाया।
    उपाध्याय किसी राष्ट्रभक्त बलिदानी की तरह सिर पर कफन, हाथ में कांकण बांधे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे संगठन के आदर्श मन में लिए आये थे और उन्होंने भारतीय राजनीति में उदीयमान, महान राजनैतिक दल की स्थापना श्रेष्ठ आदर्शां के साथ की। उन्होने अपने महान सहयोगियों को भारत का उज्जवल भविष्य बनाने हेतु संजीवनी सार्मथ्य वाले विचारों से ओत प्रोत किया। जिसके चलते जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी तक इस पार्टी की एक अलग ही आन-बान-शान  और पहचान बनी ,यह दल राष्ट्रहित चिंतकों के रूप में पूरे देश द्वारा स्वीकार किया जा रहा है। इस दल के कार्यकर्त्ता   अत्याधिक हिम्मत वाले अनुशासित स्वार्थरहित  व बलिदानी मनोवृति की विशिष्ट पहचान से पहचाने जाते है।
    वे मूलतः राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयं सेवक थे। 1937 में वे भाऊराव देवरस के सम्पर्क में आये और संघ के स्वयंसेवक बन गये। 1942 में वे लखीमपुर उ.प्र. के जिला प्रचारक नियुक्त हुऐ, बाद में विभाग प्रकारक रहते हुये, 1945 में उत्तरप्रदेश प्रांत के सह-प्रांत प्रचारक बने।
    भारतीय राजनीती में 1951 में जब जनसंघ के नाम से नये राजनैतिक इल का जन्म हुआ, तो वे उत्तरप्रदेश जनसंघ के संगठन मंत्री बने। 1952 में जनसंघ को अखिल भारतीय स्वरूप में पहला अधिवेशन कानपुर में हुआ, तो उन्हें वैचारिक योग्यता व राजनैतिक रणनीति की प्रखरता के कारण राष्ट्रीय महामंत्री नियुक्त किया गया। सच तो यह है कि उस समय
की राजनीती में उपाध्यायजी वैचारिक व राजनैतिक परिपक्वता में नेहरू के समकक्ष थे, पहले ही अखिल भारतीय अधिवेशन में 15 में 7 प्रस्ताव उपाघ्यायजी के पारित हुए थे, संघ के संविधान निर्माण में भी उनकी महती भूमिका रही , समाचार पत्र ,मासिक पत्रिका और विचारधारा के पक्ष में व नेहरू सरकार की आलोचना में प्रखरता से उनके लेखन ने भी उन्हे सर्वोच्च बना दिया था। तब से वे 1967 तक 15 वर्ष लगातार राष्ट्रीय महामंत्री रहे तथा  दिसम्बर 1967 में हुए कालीकट अधिवेशन में उन्हें अखिल भारतीय अध्यक्ष चुना गया। मगर 11 फरवरी 1968 को रेल यात्रा के दौरान उनका देहान्त हो गया। वे मुगलसराय बिहार रेल्वे प्लेटफॉर्म पर मृत पाये गये। उनकी रहस्यमय मृत्यु को, तात्कालिक राजनीती में राजनैतिक हत्या माना गया था, क्योकि 1967 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को भारी क्षति उठानी पड़ी थी , देश के सामने पहली बार गैर कांग्रेसी सरकारें भी राज्यों में सत्तारूढ़ हो सकती है, यह संदेश गया था, तबकि तिथियों में इस तरह के असंभव परिणामों को संभव करने का श्रेय पं. दीनदयाल जी उपाध्याय व जनसंघ को मिला था। हालांकि उपाध्याय जी का रहस्यमयी निधन आज भी रहस्यों में ही है ।
    संघ के विचारो से ओतप्रोत दीनदयाल जी हमेशा कहा करते थे कि हम राजनीति में राष्ट्रहित के लिए आये हैं हमे भारत माता को सभी संकटों से मुक्त कराकर परम वैभव के स्थान पर स्थापित कराना है। देशहित के प्रश्नों पर एकत्र होकर कार्य करने का आव्हान दीनदयाल जी ने हमेशा ही किया,वे देशहित को दलगत राजनीती से ऊपर रखने के समर्थक थे। उन्होंने विपक्षी दलों को फूट छोड़कर एक धागे में पिरोने के कार्य भी प्रारम्भ किया, सच यही है कि गठबंधन की राजनीती के वे ही सूत्रधार थे। लोकसभा में तब डॉ.श्यामाप्रशाद मुकर्जी के नेतृत्व में विपक्ष का गठबंधन हुआ था। तीसरी लोकसभा में कई बडे नेता चुनाव हार गये थे उनको संसद में पहुचाना जरूरी था उपचुनाव के द्वारा आचार्य कृपलानी, डॉ0 राममनोहर लोहिया और मीनु मसानी को चुनवा कर भेजने में भारतीय जनसंघ ने अपनी पूरी ताकत लगा दी । इस एक जुटता के प्रयासों का लाभ 1967 के चौथें आम चुनावों में पूरे भारत के परिणामों में देखने मिला, तब संयुक्त विपक्ष ने कांग्रेस से 9 राज्यों का बहुमत छीन लिया था। वहाँ जनसंघ सहित अन्य दलों की संविद सरकारें बनी जिन्हे राज्यपाल के द्वारा तोडा गया ।
    वे अक्सर कहा करते थे ” कांग्रेस शासन में देश आर्थिक दिवालियापन, राजनैतिक दास्य और राष्ट्रीयहितों के अवहेलना के कगार पर आ पहुँचा है। स्वराज्य में ही स्वदेशी , स्वधर्म और स्वतंत्रता का इस प्रकार गला घोंटा जाना सहन नहीं किया जायेगा। इसे बदलना ही होगा।“ उनका स्पष्ट विचार था ” जनसंघ सत्तापिपासा के लिए नहीं है, हर दशा में सत्ता से चिपके रहने के लिए भी नहीं है, जनसंघ सत्ता तो चाहता है,लेकिन राजनीति के लिए नहीं वरन राष्ट्रहित के लिए ।“
    दीनदयाल जी इस बात को पूरा प्रयास किया कि दल संरचना संतुलित हो इसके लिए उन्होंने संगठन,भ्रमण ,पठन पाठन और चिंतन को नित्यकर्म बनाया।मुद्दों पर गहराई तक जाना ,गहन विचार विमर्श करना और कराना ;उनकी कार्यशैली का महत्वपूर्ण अंग था। स्वतंत्रता के वाद में कांग्रेस द्वारा अपनाये गये समाजवाद और कम्यूनिष्टों द्वारा थोपे जा रहे साम्यवाद ने,भारतीय दर्शन व चिंतन को चुनौती दे रखी थी, विदेशी विचारो, विदेशी भाषा और मनमानी मान्यताओं की अंधी दौड़ में भारतवासियों को दौड़ाया जा रहा था ,तब उन्होंने भारतीय चिंतन की परिपक्व एवं हजारों वर्षो से सफलतापूर्वक अपनाये गये आदर्श जीवन-आयामों को एकात्ममानववाद के रूप में संकलित व स्थापित किया और सांस्कृतिक सत्य से मिली सनातन् धरोहर को नये स्वरूप में परिभाषित कर समाज के सामने रखा। समाजवाद,साम्यवाद,पूंजीवाद और भौतिकतावाद को एकात्ममानववाद के द्वारा भारतीय चुनौती दी गई और आज सारे वाद हवा हो चुकें है,मगर एकात्ममानव वाद के आधार पर चली जनसंघ और भाजपा देश की सŸातक पहुच चुकी है।  

संस्कृतिनिष्ठा उपाध्याय के द्वारा निर्मित राजनैतिक जीवनदर्शन का पहला सूत्र है। उनके शब्दों में-

“ भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन हैं। उनकी जीवन प्रणाली, कला, साहित्य, दर्शन सब भारतीय संस्कृति है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा। ” 


    जवाहरलाल नेहरू की अर्थ नीतियों की कड़ी आलोचना करते हुए उन्होंने कहा था इससे देश में गरीबी और भूखमरी बड़ेगी उद्योग-धंधे चौपट हो जायेगे। आज वह सच्चाई हमारे सामने खड़ी है। समाजवादी ढ़ाचे के लिये खडें किये गये केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों के सैकडो औद्यौगिक उपक्रम सफेद हाथी साबित हुये ,जनता के धन की गाढ़ी कमाई का अरबों-खरबों रूपया इनमें स्वाहा हो गया अब इन्हे बेच कर, इनसे छुटकारा पाया जा रहा है। यदि इस हॉनि का कुल जोड लगाया जाये तो यह  धन इतना था कि देश के आधे गरीबों को लखपति बनाया जा सकता था। 


    उपाध्याय जी ने राजनीति में रह कर ग्रामपंचायतों से लेकर केन्द्रशासित दिल्ली तक अनेकानेक विजय भारतीय जनसंघ को दिलाई है ,मगर इसके बावजूद वे पूरी तरह अनाशक्त रहे। 18 वर्षो के राजनैतिक जीवन में उन्होंने न तो किसी से बैर रखा, न कभी कोई षड़यंत्र रचा, न तिकड़म बाजी को स्थान दिया और न ही बात बदलकर चालाकी की ! बिना लाग लपेट के सीधी सीधी और सही-सही तथ्य परक बात करना उनकी प्रमुख आदत थी। उन्हें प्रमाणिक तथ्यों पर आधारित बात करने की आदत थी,वे गप्प के आधार पर या गढ़ी हुई बातों पर राजनीति के सख्त खिलाफ थे।
    उन्होंने पत्रकारिता के क्षैत्र में राष्ट्रहित से जुड़े विचारों की प्रखर प्रवाह बहाने वाली पत्रकारिता को स्थापित एवं मार्गदर्शित कराया । उनकी प्रेरणा एवंमार्गदर्शन में 1945 में मासिक राष्ट्रधर्म और साप्ताहिक पान्´जन्य का शुभारम्भ करवाया तथा बाद में दैनिक स्वदेश को प्रारम्भ करवाया ,अनेको वर्षां तक सम्पादन किया। उस दौरान उन्होने कम्पोज करने मशीन पर छापने ,बंडल बना कर भेजने तक के सारे काम खुद किये येशी अथक मेहनत का दूसरा उदाहरण नहीं है। चन्द्रगुप्त मौर्य नाम से पुस्तक लिखी , उन्होंने आदिशंकराचार्य का जीवन चरित्र लिखा तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार के मराठी जीवन चरित्र का हिन्दी अनुवाद किया तथा हजारों  सम सामायिक लेख उनके विविध पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए । जब संघ पर पहलीवार प्रतिबंध लगा तो पान्´जन्य का प्रकाशन सरकार ने रूकवा दिया तब उन्होने  भूमीगत होकर हिमालय का प्रकाशन किया उसे भी जब्त कर लिया गया तो राष्ट्रभक्त निकाला ,वे वैचारिक र्मोचे पर कभी हारे नहीं जम कर लौहा लेना ,सही जबाब देना उनकी आदत में था । वे अथक मेहनत के बल पर अकेले ही, ऊंगली पर गोबर्द्धन पर्वत उठाने जैसी क्षमता रखते थे। उन्होने अपने विचारों को तथ्य और तर्क के आधार पर हमेशा ऊंचा रखा ,उनके विलक्षण बौद्धिक तर्को का लोहा सभी दल मानते थे। राजनीति में रहते हुऐ भी, उन्हें संघ के बौद्धिक शिविरों में उन्हे आमंत्रित किया जाता था।
    मूलतः जनसंघ के जन्म के पीछे कांग्रेस का जन विश्वासघात था। देश का विभाजन मूल कारण था । 1946 में कांग्रेस ने अखंड भारत के नाम पर वोट लिये थे और मुस्लिम लीग ने देश के विभाजन के नाम पर चुनाव लड़ा था। हिन्दुस्तान के लोगों ने अखंड भारत के लिये कांग्रेस को भारी बहुमत से जिताया था। मगर उसनें देश में विभाजन स्वीकार कर देश के साथ विश्वासघात किया, कश्मीर विलय में नेहरू द्वारा वर्तागया अहंकार और पाकिस्तानी आक्रमण को विफल करने में की गई अनावश्यक देरी ,कश्मीर से पाकिस्तानी सेनाऐं हटाये बिना युद्ध विराम किये जाने और बिना किसी वजह के कश्मीर को सह राष्ट्र जैसा दर्जा देकर अनावश्यक समस्याऐ उत्पन्न करने की राष्ट्रघातीनीतियों के कारण, नेहरू से क्षुब्ध था।
    महात्मागांधी द्वारा पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपये दिलाये जाने के लिये अनशन ने आग में घी का काम किया। भारत के राष्ट्रवादी नागरिकों को एक राष्ट्रहित चिंतक राजनीतिक दल की आवश्यकता महसूस हो रही थी। इसी दौरान एक आक्रोशित युवक ने महात्मागांधी की हत्या कर दी ,मगर निर्दोष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर दोषारोपण किया गया। संघ के सरसंघचालक सहित 17 हजार स्वंयसेवक जेल में डाल दिये गये। 80हजार स्वंयसेवकों ने इस अन्याया के विरूद्ध सत्यग्रह चला कर गिरिफतारी दी जिन्हे जेलों में डाल दिया गया । मगर इस घोर अन्याय के खिलाफ एक भी राजनैतिक दल नहीं बोला,संसद के किसी भी सदन में अथवा विधानसभाओं के सदनों में यह मामला नहीं उठाया । संघ पर हुए इस अन्याय और अत्याचार में उसका साथ देने कोई नहीं आया। संघ न्यायालय द्वारा निर्दोष साबित हुआ, जेलो से स्वयंसेवक मुक्त हुए,प्रतिबंध भी हट गया। तब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने राष्ट्र और न्याय की रक्षा के लिए नये राजनैतिक दल के गठन का मार्गप्रशस्त किया ।  
     नेहरू की पाकिस्तान हितचिंतक और हिन्दुत्व विरोधी नीतियों के विरोध में तत्कालिन केन्द्रीय मंत्रीमंडल के उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने त्यागपत्र दिया था । उनसे बातचीत कर नये राजनैतिक दल के गठन का मसौदा तैयार किया गया। जो भारतीय जनसंघ के रूप में स्थापित हुआ , जिसका वर्तमान स्वरूप भारतीय जनता पार्टी है । पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने जनसंघ की स्थापना के ठीक पूर्व राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के उŸारप्रदेश सहप्रांत प्रचारक पद, पर रहते हुए मेरठ में एक भाषण में कहा था....... ”संघ पर आरोप लगाया जाता है, कि वह पुराणपंथी, प्रगति विरोधी और प्रतिक्रियावादी संगठन है किन्तु सब जानते हैं विश्व में सदैव ही परिवर्तन होते रहते है। ऐसे परिवर्तनों में शाश्वत तत्व नष्ट नहीं होते, हम भी नव रचना चाहते है किन्तु ऐसी नवरचना के लिए हम शाश्वत सत्य नहीं छोड़ना चाहते ! जीवन के शाश्वत तत्व का विकास करते हुए होने वाले सभी परिवर्तन हमें स्वीकार हैं ।“ आज सारा विश्व भारतीय दर्शन का जिज्ञासा से देख रहा है, पाश्चात्य भौतिकवाद बुरी तरह विफल हो चुका है शीघ्र ही भारतीय जीवन पद्वती विश्व अपनायेगा ऐसे संकेत मिलने लगे है।
    इन्होंने तब स्पष्ट कहा था हम अपनी पहचान की अभिव्यक्ति, संसार में करना चाहते है। उसकी रक्षा, विकास तथा उन्नयन के लिए जो भी अत्याधुनिक परिवर्तन आवश्यक होगें हम करेंगे। ज्ञान, विज्ञान और संस्कृति, सभी क्षैत्रों में अपना विकास करने के लिए जो भी परिवर्तन करना आवश्यक हों, हम स्वीकार करेंगे। पंडित जी ने कहा था जैसे शरीर अपने पोषण के लिए, अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्नय वस्तुओं को स्वीकार करता है वैसा ही हम भी करेंगे। हमें पोषणकारी किसी ग्राम्हयता से परहेज नही। हम नवीनता के विरोधी नहीं है। पुराणता के अभिमान के कारण हम अपनी रूढ़ियों या मृत परम्पराओं का संरक्षण नहीं चाहते। अपने मृत पिता या दादा के शरीर के प्रति असीम आदर रखते हुए भी हम संभाल कर नहीं रखते, बल्कि उसका दाह संस्कार कर अस्थियों का भी विर्सजन कर देते हैं। आधुनिक भारत को आधुनिक विश्व में जीना है, इसका भान रख कर, उसकी मूल प्रकृति (सांस्कृतिक मूल्यों) को स्थिर रखते हुए हमें परिवर्तन करने हैं।
    दीनदयाल जी के ऊपर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विचारों का गंभीर प्रभाव था, वे संघ के संस्थापक डॉ. हैडगेवार जी के विचारों को बहुत ही गंभीरता से सुनते एवं पढ़ते थे। यूं कहा जा सकता है कि विचारों का जो बीज था वह संघ के विचार थे । उन्होंने स्वातंत्रय समर के प्रखर प्रणेता लोकमान्य बालगंगाधर तिलक और वीर सावरकर के विचारों का गहन अध्ययन किया। उन्होने कानपुर में संघ की शाखा में वीर सारवरकर का बौद्विक करवा कर प्रखर राष्ट्रवाद का परिचय दिया । अनेक अवसरों पर दीनदयाल जी तिलक की पंक्तियों को अपने सम्बोधन में स्थान देते थे ”राष्ट्र की राष्ट्रीयता एवं जीवमानता को बनाये रखने के साधनों में राष्ट्रीय उत्सवों का स्थान महत्वपूर्ण है। सर्वमान्य ऐताहासिक सिंद्धान्त है कि अपने पूर्वजों को भूलाकर कोई राष्ट्र न तो उदित हुआ है न हो पाना संभव ही है। हमारे पूर्वजों के स्मरण से जुड़ी जयंतियाँ एवं पर्व इसी सिद्धान्त का मूर्तरूप है। स्वभाषा की अभिवृद्धि, स्वराष्ट्र के इतिहास का स्वकीय दृष्टि से अध्ययन एवं मनन, स्वधर्म में श्रृद्धा आदि बातें राष्ट्र के उत्कर्ष के लिए सहायक होती है।“
    दीनदयाल जी की यह विशेषता थी कि उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत स्वार्थ को अपने पास फटकने नहीं दिया। उन्होंने देश के सार्वभौमित्व,अखंडता और स्वाभिमान को एक क्षण भी अपने से अलग नहीं किया ,उसे गौण नहीं होने दिया । उन्होंने स्पष्ट कहा था कि ”जब तक देश का विभाजन बना रहता है,भारत पाक के बीच शांति एक मृग मरीचिका मात्र रहेगी ,पाकिस्तान की गुंडागिर्दी के सामने घुटने टेकने का अर्थ होगा पाकिस्तान को अधिक उद्दण्ड बनाना। पाकिस्तान की राजनीतिक आंकाक्षाऐं बड़ती ही जा रही है ,उसके सपनों को चूर-चूर कर दिया जाये।“ उन्होंने 1965 में ही मांग की थी कि भारतीय सेनाओं को सीधी रावलपिंडी तक घुसाओं उन्होंने आव्हान किया था, ऊरी और पूंछ जैसे अपने क्षैत्रों से वापस मत आओ । उन्होंने एक नारा भी दिया था ”विभाजन को नष्ट करो और पाकिस्तान को मुक्त करो“। उनकी वह घोषणा सही साबित हुई,पाकिस्तान निरंतर उद्ण्ड हुआ ,उसने आक्रमण किये , आतंकबाद फैलाया ,भारत में संगठित अपराध को पनपाया ;हर तरह की मदद अपराधियों व समाजविरोधियों की की।
    दीनदयाल जी एक कुशल विश्लेषक थे ,वे राजनैतिक दलों के बारे में कहते थे ” राजनैतिक दल जोड़ने के स्थान पर तोड़ने का ही काम अधिक करता है ,उसका उपाय एक ही है कि राजनीति को राष्ट्रनीति का एक अंग माना जाये ,चुनाव पूरी तरह समझदारी के साथ , बिना एक दूसरे पर कीचड़ उछाले लड़े जाये और लोकतंत्र सुविधा और सत्ता का साधन न मानकर राष्ट्रजीवन को स्वस्थ बनाने वाला मूल्य माना जाये।“ दीनदयाल जी हमेशा कहते थे ”सेवा का अनाधिकार उपयोग एक प्रकार की चोरी ही है ,उससे अन्ततः राष्ट्र को हॅानि एवं सद्गुणों में अनैतिकता ही आती है । “
    वे कहते थे ”विश्व का ज्ञान हमारी थाती है ,मानव जाति का अनुभव हमारी सम्पत्ति है ,विज्ञान किसी देश - विशेष की बपौति नहीं है । वह हमारे भी अभ्युदय का साधन बनेगा....! किन्तु भारत हमारी रंगभूमि है , भारत की कोटि कोटि जनता पात्र ही नहीं प्रेक्षक भी हैं। जिसके रंजन एवं आत्मसुख के लिए सभी भूमिकाओं का निर्धारण करना है। विश्व प्रगति के हम केवल दृष्टा नहीं है ,अपितु साधक भी है । अतः जहाँ एक ओर हमारी दृष्टि विश्व की उपलब्धियों पर हो वहाँ दूसरी ओर हम अपने राष्ट्र (भारत) की मूल प्रकृति (सनातन संस्कृति) , प्रवृति को पहचान कर अपनी परम्परा और परिस्थिति के अनुरूप भविष्य के विकास क्रम का निर्धारण करने की अनिवार्यता को भी न भूलें....!“ मेरा स्पष्ट मानना है कि उक्त प्रक्रिया को केन्द्र सरकारें अपना मूल मंत्र बनाले तो हम माँ भारती को अतिशीघ्र ही विश्व में परम वैभव के सिंहासन पर स्थापित कर सकते हैं। जबसे दीनदयालजी उपाध्याय के साथी स्वंयसेवक अटलविहारी वायपेयी ने केन्द्र सरकार की बागडौर संभाली है,तब से विश्व में भारत का कद बडा है व आधुनिकताओं के मामले में कदम दर कदम बराबरी की जाने की कोशिशें हों रहीं है।  
    पंडित दीनदयाल उपाध्याय का पैतृक गांव नंगला - चन्द्रभान, मथुरा जिले में है, उनके पिता वहां के सुप्रसिद्ध ज्योतिषी पं0 हरीरामजी शास्त्री के पुत्र श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय (रेल्वे स्टेशन मास्टर, जलेसर रोड़, उ.प्र.) थे । वे उनकी प्रथम संतान थे एवं द्वितीय संतान शिवदयाल जी थे जिनका बचपन में ही निधन हो गया था। दीनदयाल जी की माता श्री चुन्नीलाल शुक्ल स्टेशन मास्टर धानकिया रेल्वे स्टेशन (जयपुर-अजमेर रेल मार्ग ,जयपुर) की पुत्री , श्रीमती रामप्यारी देवी थी , दीनदयाल जी का जन्म नाना के यहां धानकिया जिला जयपुर (राजस्थान) में 25 सितम्बर 1916 में हुआ था। जब वे मात्र 3 वर्ष के थे तब पिताजी, 8 वर्ष के थे तब माताजी का एवं जब वे 16 वर्ष के थे तब छोटे भाई का निधन हो गया। सो उनका लालन पालन नाना-मामा के पास ही हुआ। मामा राधारमण शुक्ल रेल्वें में गंगापुर सिटी जंक्शन गार्ड थे, वहा चौथी कक्षा तक, पांचवी से सातवीं कक्षा तक कोटा (राजस्थान) मे, आठंवी कक्षा रायगढ ़जिला अलबर,,नवीं एव दसवीं कल्याण हाई स्कुल पिलानी (सीकर) में पूरी की थी। 1935 में उन्होंने हाई स्कुल की परीक्षा, अजमेर बोर्ड से प्रथम श्रेणी में प्रथम क्रम रह कर उतीर्ण की थी । उन्होंने उŸार पुस्तिकाओं में जिस तरह उत्तर दिये उन्हें बहुत ही सम्भाल करके , अविस्मरणीय मानते हुए काफी समय तक रखा गया था। वे उच्च शिक्षा के क्रम में उŸार प्रदेश में गये वहां उन्होंने कानपुर स्थित सनातन धर्म कॉलेज से गणित में बी.ए. किया , सेन्ट जोन्स कॉलेज से अंग्रेजी में एम.ए. का प्रथम वर्ष उतीर्ण किया, इससे आगे वे पारिवारिक कारणों से नहीं पड़ सके। इस दौरान वे राष्ट्रीय स्वंय सेवक-संघ के प्रचारक माननीय भाऊराव देवरस के सम्पर्क में आये और उन्होंने संघ कार्य करने का निश्चय किया।  25 सितम्बर 1916 को जन्में दीनदयाल जी अल्प आयु में चल बसे ।  उनका निधन 11 फरवरी 1968 को एक दुघर्टना हो गया । मगर उन्होंने इतने अल्प जीवन काल में जो भारत भूमि को दिया वह आश्चर्यजनक राष्ट्रसेवा के रूप में हमारे बीच निरन्तर बनी रहेगी  

अरविन्द सीसौदिया- 


 

 

 

 

 

 

राधकृष्णमंदिर रोड,

डडवाडा कोटा जं.  
9414180151



Viewing all articles
Browse latest Browse all 2979

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>